Friday 14 August 2020

किसी को अपना दुःख दर्द बता देने से मन को थोड़ी शांति क्यों हो जाती है ?

 आपने भी देखा होगा कि मृत्यु होने पर लोग 13 दिन तक शोक प्रकट करने आते हैं। अब इसमें मजेदार सिस्टम यह है कि जो लोग आए हैं , उन्हें मृत्यु की की बात का सारा पता है लेकिन बैठते ही पहला सवाल यह होता है -- हाँ तो भाई साहब , क्या हुआ ?

भाई साहब पहले दिन तो रो-रो कर पूरा वृतांत सुनाते हैं कि पिता जी रात को अच्छे भले सोए थे , सुबह भी उन्होंने चाय मांगी। पत्नी ने चाय दी। पीने लगे तो छाती में तेज दर्द शुरू हो गया। हम हॉस्पिटल ले कर भागे तुरंत , डॉक्टर ने खूब टीके-ग्लूकोज दिए लेकिन.... और फिर रोना शुरू .... और मृत्यु से लेकर दाह-संस्कार तक का विस्तार से विवरण देते हैं।अलग-अलग समय पर लोग आते रहते हैं और यह घटना उन्हें दिन में बीस बार बतानी पड़ती है।

दूसरे दिन वही भाई साहब बात की शुरुआत रात से या सुबह की चाय से नहीं बल्कि छाती के दर्द से करते हैं। आज आंसू भी कम आते हैं। मृत्यु का विवरण भी कम हो जाता है। सीधे दाह-संस्कार पर पहुँच जाते हैं।

तीसरे दिन रोते नहीं बल्कि सीधे टीके-ग्लूकोज़ पर आ जाते हैं। और मृत्यु का विवरण भी आधे मिनट में निबटा देते हैं। दाह-संस्कार का ज़िक्र भी नहीं होता ।

चौथे या पांचवे दिन तक आते-आते भाई साहब मुस्कुराने लगते हैं और दो वाक्य ही बोलते हैं -- बाकी बातें तो मौत का बहाना है। उनके सांस ही इतने लिखे हुए थे।

तो देखा आपने , बार-बार बताने से दुःख कितना कम हो गया ?

दसवें दिन तक तो यह दृश्य होता है कि वहां मृत्यु की बजाए देश की राजनीति और महंगाई पर चर्चा होने लगती है।

मतलब क्या हुआ ? सीधी सी बात है कि हमारे अनपढ़ बुजुर्ग बहुत ही समझदार और व्यावहारिक थे जो उन्होंने इस तरह की रीत बनाई। बार -बार बताने से दुःख तो कम होता ही है , आदमी मानसिक रूप से भी मजबूत हो जाता है। फिर बहुत बार यह भी होता है कि आने वाले इतनी दर्दनाक घटनाएं सुनाते हैं कि बेटा शुक्र मनाता है , बढ़िया हुआ कि अपने पिता जी तो बहुत सुख से चले गए। दुःख कम हो जाता है बहुत ही।

मैं हार्ट-अटैक के बाद स्टेंट डलवा कर हॉस्पिटल से बाहर निकल रहा था और सामने से मेरे एक पत्रकार दोस्त को चार लोग सहारा दे कर ला रहे थे। दोस्त के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था और गर्दन लटका कर वह मरा-मरा चल रहा था। मैंने पूछा - क्या हुआ ?

दोस्त नहीं बोला , सहायकों ने बताया - सर को हार्ट-अटैक आ गया।

मैंने कहा - तो इस तरह मुंह लटका कर इनका सहारा क्यों ले रखा है ?

सहायक नाराज़ हो गए और दोस्त से पहले ही बोल पड़े- आपको शर्म नहीं आती या ऊंचा सुनता है ? इन्हे अटैक आया है।

मैंने कहा - मुझे भी परसों आया था , अभी डिस्चार्ज हो कर आ रहा हूं।

दोस्त हैरान ! बोला - अकेले ही ?

मैंने स्वीकृति में गर्दन हिलाई और बताया पार्किंग में बेटा गाड़ी लिए खड़ा है तो दोस्त उनसे हाथ छुड़ा कर चलना शुरू हो गया। कमाल यह कि पहले वह कड़छी की आकृति बना हुआ था लेकिन अब बिलकुल सीधा हो गया था।

सवाल अब यह कि मैंने उसे क्या दिया ? कुछ भी तो नहीं न ?

उसमें जोश इसलिए आ गया कि उसका गम मेरे गम से कम या बराबर ही था। मैं न मिलता तो शायद वह चार कदम बाद ज़ोर ज़ोर से सांसें लेने लगता या छाती पकड़ कर बैठ ही जाता। अब वह ठीक है और हम एक-दूसरे को ' स्टंटमैन ' कह कर पुकारते हैं।

यह तो बताना भूल ही गया कि मेरे उस डॉक्टर ने वार्ड में व्हाट्स एप्प से प्राप्त यह मेसज भी लगा रखा है :

अगर दिल खोला होता , यारों के साथ

हमें न खोलना पड़ता , औज़ारों के साथ।

तो अपनी व्यथा , अपनी पीड़ा अपने किसी मित्र को अवश्य सुनाएं , दर्द कम हो जाएगा। बल्कि रोज सुनाएं किसी न किसी को। तीसरे दिन आपको खुद पर ही गुस्सा आने लगेगा कि यार यह क्या बकवास कर रहा हूँ मैं ! यह भी हो सकता है कि आप किसी मित्र को अपना दुःख दर्द बताएं और अगला भी शुरू हो जाए और आप पाएं कि उसके मुकाबले आपकी तकलीफ तो कुछ भी नहीं।

किसी मित्र से भी न कह पाएं तो एक कागज़ पर दिन में कई बार पूरी तकलीफ लिखें और उसे फाड़ कर फेंक दें। आप चार बार ही लिखेंगे , पांचवी बार में ठीक हो जाएंगे।

इतना भी न कर सकें तो किसी अनाथालय या किसी हॉस्पिटल के ट्रामा सेंटर का एक चक्र लगा आएं। आप अपनी तकलीफ न भूल जाएं तो कहना।

रामदेव योग करवाते हुए कहते हैं -- करने से होता है। मैं आपको दुःख-दर्द कम करने का बता देता हूं - बताने से ही होता है।

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